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इस रचनात्मक कार्यक्रम में सभी बातों का समावेश नहीं हुआ है।स्वराज की इमारत एक जबरदस्त चीज है,जिसे बनाने में अस्सी करोड़ हाथों को काम करना है।इन बनाने वालों में किसानों की यानी खेती करनेवालों की तादाद सबसे बड़ी है।सच तो यह है कि स्वराज की इमारत बनाने वालों में ज्यादातर ( करीब 80 फीसदी) वही लोग हैं,इसलिए असल में किसान ही कांग्रेस है ऐसी हालत पैदा होनी चाहिए।आज ऐसी बात नहीं है।लेकिन जब किसान को अपनी अहिंसक ताकत का खयाल हो जायगा,तो दुनिया की कोई हुकूमत उनके सामने टिक नहीं सकेगी।

जो किसानों या खेतीहरों को संगठित करने का मेरा तरीका जानना चाहते हैं,उन्हें चंपारन के सत्याग्रह की लड़ाई का अध्ययन करने से लाभ होगा।हिंदुस्तान में सत्याग्रह का पहला प्रयोग चंपारन में हुआ था। उसका नतीजा कितना अच्छा निकला,यह सारा हिंदुस्तान भलीभांति जानता है। चंपारन का आंदोलन आम जनता का आंदोलन बन गया था और वह बिल्कुल शुरु से लेकर अखीर तक पूरी तरह अहिंसक रहा था। उसमें कुल मिलाकर कोई बीस लाख से भी ज्यादा किसानों का संबंध था।सौ साल पुरानी एक खास तकलीफ को मिटाने के लिए यह लड़ाई छेड़ी गई थी।इसी शिकायत को दूर करने के लिए पहले कई खूनी बगावतें हो चुकी थीं।किसान बिल्कुल द्सबास दिए गए थे।मगर अहिंसक उपाय वहां छह महीनों के अंदर पूरी तरह सफल हुआ।किसी तरह का सीधा राजनीतिक आंदोलन या राजनीति के प्रत्यक्ष प्रचार की मेहनत किए बिना ही चंपारन के किसानों में राजनीतिक जागृति पैदा हो गई।

……… इनके सिवा,खेड़ा,बारडोली और बोरसद में किसानों ने जो लड़ाइयां लड़ीं,उनके अध्ययन से भी पाठकों को लाभ होगा।किसान -संगठन की सफलता का रहस्य इस बात में है कि किसानों की अपनी जो तकलीफें हैं,जिन्हें वे समझते और बुरी तरह महसूस करते हैं,उन्हें दूर कराने के सिवा दूसरे किसी भी राजनीतिक हेतु से उनके संगठन का दुरुपयोग न किया जाए।किसी एक निश्चित अन्याय या शिकायत के कारण को दूर करने के लिए संगठित होने की बात वे झट समझ लेते हैं।उनको अहिंसा का उपदेश करना नहीं पडता।अपनी तकलीफों के एक कारगर इलाज के रूप में वे अहिंसा को समझकर उसे आजमा लें और फिर उनसे कहा जाए कि उन्होंने जिसे आजमाया है वही अहिंसक पद्धति,तो वे फौरन ही अहिंसा को पहचान लेते हैं और उसके रहस्य को समझ जाते हैं।

नारायण देसाई

संपूर्ण क्रांति विद्यालय, गांधी विद्यापीठ, वेडछी, जि. तापी – 394641

प्रिय मित्र,

सप्रेम जय जगत ।

लोकसभा के परिणामों को देख कर यह पत्र लिखने बैठा हूँ। मुझे यह सलाह मिल चुकी है कि अभी रुको, परिस्थिति देखो, फिर लिखो। मुझे लगता है कि यह पत्र भी थोडा सोचने का मौका देनेवाला प्रसंग है। और इसलिए बहुत देर ना करते हुए कुछ विचार तो प्रगट करना चाहिए।

सबसे बडी चिता जीतनेवाले दल के नायक की सोच के बारे में है। अभी तक की उनकी कार्यवाही फासिस्ट पद्धति से मिलती-जुलती रही है। १. एक विशिष्ट अमीर वर्ग का साथ लिया। २. वातावरण बनाने में अपनी वाक्पटुता का सहारा मिला है। ३. देश की शायद सबसे अधिक अनुशासित और फैली हुई संस्था का संबंध और पूरा समर्थन प्राप्त किया है। ४. अधिकांश माध्यमों को खरीद लिया है। ५. जिससे जूझना था वह शक्ति संपूर्ण खोखली हो चुकी थी।

देश की भावि दिशा पहले सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या धर्म का आधार था। बाद में जिसने ‘विकास’ शब्द चुना है उस विकास में और कोंग्रेस के विकास में बहुत कम अंतर है। दोनों उन शक्तियों का अंधानुकरण करते हैं जो शीघ्र ही जगत को डुबा सकती हैं। हमारे देश के तेजी से बढते हुए मध्यम वर्ग को इस प्रगति में या विकास में स्वर्ग दिखता है। उसके समर्थन से फासीवाद जीता है, और जो देखते देखते ही हुकम माननेवाला, कायर बौद्धिक वर्ग बन जायेगा। अंतर्राष्ट्रीय सोच अल्पावधियों में युद्ध के कगार तक ले जा सकती है।

प्रश्न यह है कि ऐसी परिस्थितियों में जीवन की ताकतों का क्या कर्तव्य है ? यानी हम जैसे लोगों का कर्तव्य जो सोच से अपने आपको गांधी के साथ समझते है, लेकिन जो स्वयम् कर्तव्यविमूढ, धारा के साथ रहनेवाले, मन ही मन में अपने सिवा और सबको कोसनेवाले और प्रायः निष्क्रिय या जड हैं।

सोचना यह चाहिए कि देश में कोई नई ताकतें अंकुरित हो रही हैं क्या, जो दिशा बदलने में सहायक हो सके, जो आपस में लड कर शक्ति बरबाद न करें और जो

(१)

देश को नई दिशा में ले जाने में समर्थ न हो, तो कम से कम देश को गिरते हुए बचाने की कोशिश तो करेंगे। ऐसे लोगों में नीचे लिखे वर्गों को क्या शामिल किया जा सकता है – क्या उन्हें सही दिशा सुझाई जा सकती है, क्या आज से कुछ साल बाद ही सही, देश कुछ नया दर्शन जगत के सामने पेश कर सकता है खास कर उस परिस्थिति में जब हमारे पास न गांधी है, न विवेकानंद ?.

१. नवोदित युवा वर्ग

शायद दुनियाभर में कहीं न हो इतना बडा युवा वर्ग यह वर्ग जिसके पास आज तो सिने-स्टार और स्पोर्टहीरोझ के सिवाय कोई रोल मोडल नहीं है। न जो किसी रोल-मोडल की खोज में दिखते हैं। यह वर्ग दिशाहीन भटकता है या तो स्पर्धा में पडता है और कुछ सफल होता है और अधिकांश निराश होता है। फिर वे गडरिया धँसान में फंस जाते हैं। या फिर उनमें से अपराध के चुंगाल में फंसते हैं। बिगडी दुनिया को बदतर बनाने में यह सहायक बन सकते हैं और इनको सम्हालना ही मानों शासन के पराक्रम का मुख्य विषय बन जाता है।

२. दूसरे हैं दलित, आदिवासी या अन्य पिछडी जातियों के लोगों में से कुछ । इनमें से भी एक बहुत छोटा हिस्सा ही मुखर है, अधिकांश तो चुप है, दबे हुए हैं या यह भी नहीं जानते कि वे कहाँ है। इस वर्ग के पास सिवाय समाज को धिक्कारने के और कोई भी दर्शन नहीं है। कम से कम हमें तो आपस में लडकर शक्ति बरबाद नहीं करनी चाहिए। इतनी समझ भी नहीं है। इनमें से जो जागृत है, वे आपस के अभिमान की टक्कर में शक्ति बरबाद करते हैं। जो जागते नहीं वे सोते हैं – स्वप्न भी नहीं देखते ।

३. नारी-शक्ति

इनमें जो जागती हैं वे या तो पुरुष के तिरस्कार में जिसके लिए उनके पास शताब्दियों का अनुभव और पीडन है- या तो जो तिरस्कार नहीं करतीं वे पुरुषों की आज की दुष्ट व्यवस्था का अनुकरण करने में ही गौरव लेती है। मौलिक सूझ बहुत कम दिखती है, किन्तु इस शक्ति में बहुत बडी शक्तियाँ हैं- अधिक संभावना से भरी पड़ी है, कौन इन्हें जगायें ?

४. एक शक्ति है बाबा भक्तों की। इनमें अधिकांश भेडिया धँसान है। लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें आज की परिस्थिति से आध्यात्मिक उपाय चाहिए ।

(२)

काफी पढे-लिखे और सोचे-समझे लोग भी इनमें हैं। लेकिन उनमें कोई ऐसा मार्गदर्शक चाहिए जो भीतर से संतोष दे। बाहर से जो सुख प्राप्त है उसे जारी रखे । इनमें से भी कोई बगावत करनेवाला निकलेगा क्या ? जो स्वयम् त्याग-तपस्या के रोल-मोडल बन सकें? जो महात्माओं के केवल विज्ञापनबाज बन कर न रह जाय ?

प्रश्न उठता है इस परिस्थिति में करना क्या ? आज लिखने में संकोच इसलिए है कि कुछ महिनों के बाद मेरी आयु के ९० वर्ष पूरे होंगे। मन का उत्साह भले जैसा भी जोशपूर्ण हो शारीरिक मर्यादायें तो हैं ही। फिर भी विचार की दृष्टि से कुछ सुझाव :

१. यथासंभव तृणमूल (ग्रासरूट) को मजबूत करने में ताकत लगानी चाहिए। आजकल भले ही विपरीत दिखता हो, कल अनुकूल हो भी सकता है। उस परिस्थिति को बनाने में या उसका स्वागत करने के लिए जमीन चाहिए। वह तब होगा जब समाज को निम्नतम स्तर (ग्रासरुट्स) में कोई ताकत बची होगी।

२. कार्यक्रम मुझे तो वह ही सूझता है जो जयप्रकाशजी ने वर्षों पहले दिया था। वह था चतुर्विध कार्यक्रम : १. प्रबोधन २. संगठन ३. नमूने ४. संघर्ष ।

सकारात्मक विचारों को बहुत बहुत फैलाने की जरूरत है। स्कूली बच्चों से लेकर बूढों तक । माध्यम इसके लिए अपने अपने हो सकते हैं। मुझे गांधीकथा का माध्यम सूझ गया है। उसमें मैं यथाशक्ति मति सुधार संशोधन करता रहूंगा। सुना है कि कुछ लोग इस माध्यम को अपनाना चाहते हैं। स्वागत है। ध्यान इसमें इस बात का रखना होगा कि सोच या जानकारी पक्की रखनी होगी। उनमें शैथिल्य आने से लाभ से अधिक नुकसान हो सकता है।

अलग अलग श्रेणियों के श्रोताओं के लिए प्रबोधन का अलग अलग

माध्यम हो सकता है। गुजरात में जितना ध्यान प्राथमिक शिक्षा में दिया गया है, उच्च शिक्षा में नहीं। उस क्षेत्र में पश्चिम के अनुकरण के बदले में हमें अपने मौलिक उपाय ढूंढने होंगे ।

संगठन में अब तक अनुकरण ही दिखता है। कुछ अधिक स्वाभाविक मौलिक तरीके ढूंढने होंगे। अंग्रेजों के आने से पहले हमारे यहाँ जो संगठन के तरीके थे उन पर ध्यान लेकर कुछ नव-संस्करण करना होगा ।

संगठनों को भ्रष्ट करने का आजकल सबसे सुलभ मार्ग है चुनाव। हमें चुनावों

(३)

के विकल्प ढूंढने होंगे। कुछ मौलिक, जनतांत्रिक मार्ग ढूंढने पड़ेंगे। आपके कुछ सुझाव ? डो. आंबेडकर पारंपरिक ग्रामीण तरीकों पर चिढे हुए थे, क्योंकि उनके सबसे अधिक बुरे परिणाम वे भुगत चुके थे। गांधी ने अपनी कल्पना के गांवों के साथ अपने आदर्शों को भी जोडा था। वास्तव में वैसी व्यवस्था पहले कभी ना भी रही हो । संगठन के संबंध में कुछ प्रयास विदेशों में हुए हैं यथा क्वेकर संप्रदाय के, दुनिया भर के क्रियाशीलों के। आपके सुझाव ?

संघर्ष के गांधी के तरीके – सत्याग्रह – ने जगत को बहुत आकर्षित किया। किन्तु सत्याग्रह का एक समानार्थी शब्द, गांधी ने ‘Love Force’ कहा था। हम सुविधापूर्वक उसे भूल गये हैं।

विकल्प खड़े करने में हमारी बहुत शक्ति लगनी चाहिए। कम से कम जीवन की प्राथमिक जरूरत की चीजें तो हमारे गाँवों मे पैदा कर लें। चारों तरफ से परमाणु ताकत से घिरे हमारे ४ लाख गाँवों का यह शायद सर्वोत्तम सुरक्षा कदम बने, यह विचार इजराइल के किबुसिम के अनुभवी लोगों को भी व्यावहारिक विचार मालूम हुआ था ।

विकल्प में कुमारप्पा, शुमाखर आदि के आधुनिक वारस निकलने चाहिए। विनोबा का विचार तो विज्ञान और आध्यात्म के मेल का था। क्या हममें से किसी तरुण को इसके लिए अपना तारुण्य लगा देने की प्रेरणा नहीं होगी ?

ये तो मेरे विचार यथासंभव संक्षेप में लिखे हैं। लेकिन आज की वर्तमान परिस्थिति तथा उनके उपायों के बारे में सोचते होंगे। मेरे पत्र की लंबाई को क्षमा कर आप अपने विचार तथा सुझाव भेजिये ।

सप्रेम ।

नारायण देसाई

10 दिसम्बर 2014 को नारायण देसाई को पक्षाघात हुआ और वे अर्ध मूर्छा में चले गए। 2014 के चुनाव के बाद साथियों के नाम यह पत्र लिखा है।

2024 के चुनाव से पहले पत्र प्रासंगिक बना हुआ है।

सुझाव,टिप्पणियों का स्वागत।

कांग्रेस और भाजपा को विदेशी चंदा हासिल करने के खिलाफ दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला दिया था।इस फैसले को इन दलों ने संसद में कानून बदल कर बेअसर कर दिया।माकपा के कार्ड होल्डर प्रबीर पुरकायस्थ को चीन नहीं अपितु अमेरिकी संस्था से धन मिला और न्यूज़क्लिक इसे प्रत्यक्ष पूंजी निवेश कह रही है।चुनाव में प्रत्याशी के खर्च की सीमा है किंतु दलों के खर्च की न तो सीमा है और न ही दलों द्वारा चुनाव में खर्च चुनाव मशीनरी को जमा करना पड़ता है।दलों द्वारा चुनाव में खर्च की सीमा हो अथवा नहीं इस विषय पर चुनाव आयोग ने दलों की बैठक बुलाई थी।इस बैठक में 43 दलों ने भाग लिया था।इनमें से 42 ने चुनावों में दलों के खर्च की सीमा निर्धारित करने की बात कही थी।43वां दल भाजपा था जिसने दलों द्वारा चुनाव में खर्च की सीमा तय करने का विरोध किया था।दलों को चंदे का स्रोत बताने की अनिवार्यता न हो यह सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में कहा है।दलों को अज्ञात स्रोतों से असीमित चंदा मिलने की इजाजत राजनीति में काले धन को वैधता प्रदान करती है।

अफ़लातून,

संगठन सचिव,

समाजवादी जन परिषद (पंजीकृत राजनैतिक दल)

Varanasi land grab 2


2010 में 10 गुजराती हीरा तस्करों को चीन में 73 लाख अमेरिकी डॉलर के 14,000 कैरेट हीरों की तस्करी में सजा हुई।इनके अलावा 12 गुजराती तस्करों पर जुर्माना लगा कर स्वदेश प्रत्यर्पित कर दिया गया।
भारत के सँविधान के अनुसार अंतरराष्ट्रीय राजनय केंद्र सरकार कर सकती है।गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी खुद चीन चले गए तथा उन्होंने सार्वजनिक तौर पर दावा किया कि उनकी पहल पर चीन ने गुजराती हीरा तस्करों की रिहाई में कुछ मुरव्वत की।
चीन में उन्हें तत्कालीन भारतीय राजदूत का सहयोग अवश्य मिला।
चीन में भारत के राजदूत तथा गवांगझाऊ के वाणिज्य दूतावास प्रभारी इंद्रमणि पांडे गिरफ्तार तस्करों से जेल में मिले थे।
श्री मोदी ने जेल में बंद गुजराती तस्करों को शाकाहारी भोजन मुहैया कराने के लिए आभार प्रकट किया था।
चीन में भारत के तत्कालीन राजदूत को इस राजनय का श्री मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर पुरस्कार मिला।आज वे भारत के विदेश मंत्री हैं, सुब्रमण्यम जयशंकर।
जनता लंबे समय तक खबरें याद नहीं रख पाती,इसलिए याद दिलाया।

स्वाति और नारायण भाई
*
नारायण भाई रवींद्रनाथ के गीत,कविताओं और साहित्य से अपनी प्रवासी बंगाली पुत्र वधु स्वाति से ज्यादा परिचित थे।उनके पिता ने भी गुरुदेव के गीत और शरद चटर्जी की कहानियां गुजराती में अनुदित की थीं।महादेवभाई ने गुरुदेव रचित धुन पर ही ‘एकला चलो’ का जो गुजराती अनुवाद किया वह गुजरात में अब भी लोकप्रिय है,सुंदर वीडियो भी बना है (टिप्पणी में वीडियो की कड़ी है)। नारायणभाई ने भी गुरुदेव की मूल धुन बरकरार रखते हुए ‘भेंगे मोर घरेर चाभी निए जाबी के आमारे’ का अनुवाद किया है।कुछ कविताओं का उनके द्वारा अनुवाद ‘रवि छबि’ नाम से एक संग्रह के रूप में छपा है तथा शिक्षा के विषय पर लिखे गुरुदेव के नाटक ‘अचलायतन’ का भी नारायण भाई ने अनुवाद किया था। गुजराती में नाटक उपलब्ध है अथवा नहीं,पता नहीं। बहरहाल, स्वाति को जो भी रवींद्र संगीत मालूम थे उन्हें वह गाती थी।नारायण भाई की सधी हुई गंभीर आवाज और स्वाति की मीठी आवाज साथ-साथ सुनने के अवसर सम्पूर्ण क्रांति विद्यालय के प्रार्थना अथवा मनोरंजन के सत्र में कभी कभी मिल जाते थे।
अपनी जवानी में हिंदी का विद्यार्थी रहते हुए नारायण भाई ने कविता जैसी एक पंक्ति लिखी थी,’दिवस के अवसान पर जब चाहते विश्राम हो,कार्य परिवर्तन करो’।उसी तर्ज पर वे कभी-कभी स्थान-परिवर्तन कर काशी आ जाते थे।आराम में भी मेरे हृदय की शल्य क्रिया के बाद हाल चाल लेना हो,अथवा किताब का लेखन पूरा करना हो जैसा एजेंडा नत्थी रहता था।विधिवत अपने घोषित काम से एक बार आए तब निमंत्रण स्वाति का था और आयोजन साझा संस्कृति मंच का।काशी में ‘गांधी कथा’ के सफल आयोजन के लिए।वेड़छी लौटने पर स्वाति के बनाये पकवानों का सरस जिक्र जरूर होता था।इनमें दही बड़ा जैसे आइटम भी शरीक होते थे जो स्वाति को स्वयं पसंद नहीं थे लेकिन उसे पता था कि बाउभाई को पसंद है।एकादश व्रत के ‘अस्वाद’ के मायने यह यही नहीं होता कि अच्छे स्वाद को भूल जाएं।
साथी सुनील ने कल्पना की थी कि 21वीं सदी के समाजवाद पर अच्छा सेमिनार होना चाहिए।सेमिनार में वरिष्ठतम समाजवादी डॉ जी जी पारीख,नारायण देसाई,पर्यावरणविद प्रो गाडगिल, पत्रकार अरुण त्रिपाठी,श्रुति तांबे प्रमुख अतिथि थे।इस आयोजन में स्वातिजी के साथ साथी निशा शिवूरकर और साथी जोशी जेकब भी संयोजक थे।विवि में स्वाति द्वारा बायोइंफॉर्मेटिक्स के साथ ही समाजशास्त्र और साहित्यिक गतिविधियों के सफल आयोजन के तजुर्बे का लाभ दल को भी मिला।नारायण भाई ने क्रांति में रचनात्मक कार्य के महत्व पर बोला।सेमिनार में मौजूद नियमगिरी के साथी उनका चरखा चलाना अभिभूत होकर देखते थे।इनमें से कुछ पर नवीन पटनायक सरकार ने बाद में माओवादी होने का आरोप लगाया।
गांधीजी से जुड़े मूल्यों को जीवन में उतारने के कारण हमारे सच्चीदानंद सिन्हा , रामइकबाल बरसी,कृष्णनाथजी और अशोक सेकसरिया के साथ-साथ नारायण देसाई भी स्वाति के वरेण्य थे।
स्वाति डेढ़ बरस की थीं तब उनके पिता सत्येन्द्रनाथ दत्त गुजर गए थे।लोगों ने स्वाति को बताया था कि वे उसको बहुत प्यार करते थे।स्वाति 19 वर्ष की थीं तब माँ कैंसर की शिकार हो गईं।नारायण भाई से स्वाति को भरपूर स्नेह मिला।और नारायण भाई को स्वाति से भरपूर आदर (हिंदी में)।

कौन भूल सकता है कानपुर के उस भीषण नर-संहारकारी हिन्दू मुस्लिम दंगे को? बीसीयों मंदिर और मस्जिदें तोड़ी और जलाई गईं, हजारों मकान और दुकानें लुटीं और भस्मीभूत हुईं। लगभग 75 लाख की सम्पत्ति स्वाहा हो गई, करीब 500 से भी ऊपर आदमी मरे और हजारों घायल हुए। कितनी माताओं के लाल, काल के गाल में समा गए, कितनी युवतियों की माँग का सिन्दूर धुल गया, हाथ की चूड़ियाँ फूट गईं, कितने फूल से कोमल और गुलाब से आकर्षक नवजात शिशु और बच्चे मूली-गाजर की तरह काट डाले गये और कितने मातृ-पितृहीन होकर निराश्रित और निःसहाय बन गए। कितने लखपति, भिखारी बन गये। ऐसा भंयकर, ऐसा सर्वनाशकारी, ऐसा आतंकपूर्ण था कानपुर का वह दंगा! परंतु यह सब होते हुए भी इसका नाम चिरस्थायी न होता, यदि गणेशशंकर विद्यार्थी आत्माहुति देकर, हिन्दू-मुसलमानों के लिए एक महान और सर्वथा अनुकरणीय आदर्श उपस्थित न कर जाते।

      चार दिन तक कानपुर में कोई व्यवस्था, कोई कानून न था, अंग्रेजी राज्य, चार दिन के लिए मानों खत्म हो गया था। कोई किसी को पूछने वाला न था। हिन्दू मुसलमान एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे थे। दोनों अपनी मानवता भूलकर राक्षसीपन पर उतर पड़े थे। धर्म और मज़हब के नाम पर परमात्मा और खुदा का नाम लजाया जा रहा था। क्या बच्चा, क्या वृद्ध, क्या पुरूष और क्या स्त्री, किसी का भी जीवन सुरक्षित न था। हिन्दू मोहल्लों में मुसलमान और मुसलमान मोहल्लों में हिन्दू लूटे-मारे, जलाए और कत्ल किये जा रहे थे। ऐसे कठिन समय में बड़े-बड़े मर्दाने वीर भी आगे बढ़ने से हिचक रहे थे। पर उस वीर से न रहा गया, वह आग में कूद पड़ा और अपने को हिन्दू-मुस्लिम एकता की वेदी पर, परोपकारिता के उच्च आदर्श पर, सैकड़ों स्त्री-पुरूषों की प्राणरक्षा करने की लगन पर, मनुष्यता पर और सबसे अधिक अपने जीवन की अन्याय तथा अत्याचार विरोधी उत्कृष्ट भावना पर निछावर हो गया! वह वीर था गणेशशंकर विद्यार्थी।

       24 मार्च मंगलवार 1931 को कानपुर में हिन्दू-मुस्लिम दंगा शुरू हुआ। विद्यार्थी  जी निकले और झगड़े के स्थानों में पहुँचकर लोगों को शान्त करने, उनकी प्राण-रक्षा करने और उनके मकानों और दुकानों को जलने एवं लूटे जाने से बचाने की कोशिश करने लगे। शाम तक वह इसी धुन में मारे-मारे फिरते रहे। लोगों को बचाते वक्त उनके पैरों में कुछ चोटें र्भी आईं। उस दिन पुलिस का जो रवैया उन्होंने देखा, उससे वे समझ गए कि पुलिस घोर पक्षपात और उपेक्षा से काम ले रही है। ऐसी दशा में लोगों के जान-माल की रक्षा के लिए पुलिस के पास जाना बिलकुल व्यर्थ है।

        उस रात और अगले दिन सुबह, दंगे का रूप और भी भीषण हो गया और चारों तरफ से लोगों के मरने, घायल होने, मकानों के जलाए और दुकानों के लूटे जाने की खबरें आने लगीं। इन लोमहर्षक समचारों को सुनकर विद्यार्थी जी का दयापूर्ण और परोपकारी हृदय पिघल उठा और वे नौ बजे सुबह सिर्फ थोड़ा-सा दूध पीकर लोगों को बचाने के लिए चल पड़े। उनकी धर्मपत्नी ने जाते समय कहा- “कहाँ इस भयंकर दंगे में जाते हो?“ उन्होंने जवाब दिया-“तुम व्यर्थ घबराती हो। जब मैंने किसी का बुरा नहीं की तब मेरा कोई क्या बिगाड़ेगा? ईश्वर मेरे साथ है।“

       शुरू में उनको पटकापुर वाले ले गए और वहाँ के करीब 50 आदमियों को उन्होंने सुरक्षित स्थानों पर भेजा। वहाँ से वे बंगाली मोहल्ला और फिर इटावा-बाजार पहुँचे। लगभग 3 बजे वे इन दोनों मोहल्लों के मुसलमानों को धधकते और गिरते हुए मकानों से निकाल-निकलाकर उनके इच्छित स्थानों को भेजते रहे। इस प्रकार करीब 150 मुसलमान स्त्री, पुरूष और बच्चों को उन्होंने वहाँ से बचाया। कितने ही मुसलमानों को तो उन्होंने और कोई सुरक्षित जगह न देखकर, अपने विश्वासी हिन्दू मित्रों के यहाँ रखकर उनकी जान बचाई।

       उस समय जिन्होंने उन्हें देखा यही देखा कि विद्यार्थी जी अपना डेढ़ पसली का दुबला-पतला शरीर लिए नंगे पाँव, नंगे सिर, सिर्फ एक कुर्ता पहने, बिना कुछ खाए-पिए, बड़ी मुस्तैदी और लगन के साथ घायलों और निःसहायों को बचाने में व्यस्त थे। किसी को कन्धे पर उठाये हुए हैं और तो किसी को गोदी में लिए अपनी धोती से उसका खून पोंछ रहे हैं।

       इसी बीच उनसे लोगों ने मुसलमानी मोहल्लों में हिन्दुओं पर होने वाले अत्याचारों का हाल कहा। यह जानते हुए भी कि जहाँ की बात कही जा रही है, वहाँ मुसलमान रहते हैं और वे इस समय बिलकुल धर्मान्ध होकर पशुता का ताण्डव-नृत्य कर रहे हैं, विद्यार्थी जी निर्भीकता के साथ उधर चल पडे़। रास्ते से उन्होंने मिश्री बाजार और मछली बाजार के कुछ हिन्दुओं को बचाया और वहाँ से चौबे-गोला गए। वहाँ पर विपत्ति में फँसे हुए बहुत से हिन्दुओं को उन्होंने निकलवाकर सुरक्षित स्थानों में भेजा और औरों के विषय में पूछ ही रहे थे कि मुसलमानों ने उन पर और उनके साथ के स्वयंसेवकों पर हमला करना चाहा। इस समय उनके साथ दो हिन्दू और एक मुसलमान स्वयंसेवक थे। मुसलमान स्वयंसेवक संघ के यह कहने पर कि “पण्डित जी को क्यों मारते हो, इन्होंने तो सैकड़ों मुसलमानों को बचाया है,“ भीड़ ने उन्हें छोड़ दिया। इसके थोड़ी ही देर बाद मुसलमानों के एक दूसरे गिरोह का एक आदमी आगे बढ़ा। मुसलमान स्वयंसेवक ने उसे भी समझाया कि “पण्डितजी ने सैकड़ों मुसलमान भाईयों को बचाया है, इन पर वार न करो“, पर उसने इस पर विश्वास न किया और भीड़ को विद्यार्थी जी को मारने का इशारा कर दिया। इसी समय कोई एक सज्जन विद्यार्थी जी को बचाने की गरज से उन्हे गली की ओर खींचने लगे। इस पर विद्यार्थी जी ने उनसे कहा- “क्यों घसीटते हो मुझे? मैं भागकर जान नहीं बचाऊँगा। एक दिन मरना तो है ही। अगर मेरे मरने से ही इन लोगों के हृदय की प्यास बुझती हो, तो अच्छा है कि मैं यहीं अपना कर्तव्य पालन करते हुए आत्मसमर्पण कर दूँ।“ विद्यार्थी जी यह कह ही रहे थे कि चारों ओर से उन पर और स्वयंसेवकों पर मुसलमान लोग टूट पड़े। लाठियाँ भी चलीं, छुरे भी चले और न जाने किन-किन अस्त्रों के वार हुए। मुसलमान स्वयंसेवक को थोड़ी मार के बाद मुसलमान होने की वजह से छोड़ दिया गया। दोनों हिन्दू स्वयंसेवक बुरी तरह घायल हुए। इनमें श्री ज्वालादत्त नामक एक स्वयंसेवक तो वहीं स्वर्गवासी हुए, पर दूसरे की जान बच गई।

       विद्यार्थी जी को कितनी चोटें लगीं, उनकी मृत्यु कितनी देर बाद हुई और वहाँ से उनकी लाश कब कौन, कहाँ ले गया, इसका कुछ भी ठीक-ठीक पता आज तक नहीं चला।

       दूसरे दिन दो-चार व्यक्तियों के कथन से भी विद्यार्थी जी के चौबे-के-गला नामक स्थान पर जाने और वहाँ मुसलमानों की भीड़ से घिरने की बात का पता लगता है और इसी निश्चय पर पहुंचना पड़ता है कि वहीं पर उन धर्मान्ध मुसलमानों के उन पर वार हुए और वहीं उनके प्राण पखेरू उड़ गए। मरने के बाद मुसलमानों ने उन्हें शीघ्र ही वहाँ से हटाकर किसी मकान में छिपा दिया और दो-तीन दिन बाद, जबकि लाश फूलकर बहुत बदसूरत हो गई और पहचाने जाने लायक नहीं रही, तब उन्होंने उसे किसी प्रकार और लाशों के साथ मिलाकर अस्पताल में भेज दिया।

       27 मार्च को एकाएक पता चला कि अस्पताल में जो बहुत-सी लाशें पड़ी हुई हैं उनमें एक के विद्यार्थी जी की लाश होने का सन्देह है। तुरंत प. शिवनारायण मिश्र और डॉ. जवाहरलाल वहाँ पहुँचे और यद्यपि लाश फूलकर काली पड़ गई थी, बहुत कुरूप हो गयी थी, फिर भी उन्होंने उनके खद्दर के कपड़े, उनके अपने ढंग के निराले बाल और हाथ में खुदे हुए ‘गजेन्द्र’ नाम आदि देखकर पहचान लिया कि दरअसल वह विद्यार्थी जी ही की लाश थी। उनका कुर्ता अभी तक उनके शरीर पर था और उनकी जेब से तीन पत्र भी निकले, जो लोगों ने विद्यार्थी जी को लिखे थे।

       इस प्रकार विद्यार्थी जी ने अत्यन्त गौरवमय मृत्यु-जो हममें से शायद ही किसी को कभी नसीब हो-प्राप्त की । न जाने कितनों को वह अनाथ करके, निराश्रित बनाकर, रूलाकर, चले गए। पं. बनारसीदास चतुर्वेदी के शब्दों में वास्तव में-“आज उस दीनबन्धु के लिए किसान रो रहे हैं। कौन उनकी उदर-ज्वाला को शान्त करने के लिए स्वयं आग में कूद पड़ेगा? मजदूर पछता रहे हैं। कौन उन पीड़ितों का संगठन करेगा? मवेशीखानों से भी बदतर देशी राज्यों के निवासी आज अश्रुपात कर रहे हैं। कौन उन मूक पशुओं को वाणी प्रदान करेगा? ग्रामीण अध्यापक रूदन कर रहे है। कौन उन्हें आश्रय देकर स्वयं आफत में फँसेगा, उनके कन्धे से कन्धा मिलाकर स्वातंत्रय-संग्राम में आगे बढे़गा? और एक कोने में पडे़ हुए उनके कुछ पत्रकार बन्धु भी अपने  को निराश्रित पाकर चुपचाप आँसू बहा रहे हैं आपातकाल में कौन उन्हें सहारा देगा? किससे वे दिल खोलकर बाते कहेगे; किसे वे अपना बड़ा भाई समझेंगे और कौन अपने छोटे भाईयों का इतना ख्याल रखेगा?“

विद्यार्थी जी के निधन का समाचार मालूम होने पर 27 मार्च को कराँची कांग्रेस की विषय-निर्धारिणी समिति में इसका उल्लेख करते हुए महात्मा गाँधी ने बहुत ही मर्मस्पर्शी शब्दों मे इस प्रकार कहा थाः

       ‘श्री गणेशशंकर विद्यार्थी एक मूर्तिमान संस्था थे। ऐसे मौके पर उनकी मृत्यु का होना एक बड़ी दुःखद बात है; वे हिन्दुओं और मुसलमानों को एक दूसरे का सिर तोड़ने से बचाते हुए मरे। अब समय आ गया है कि हिन्दू और मुसलमान इस प्रश्न की महत्ता को महसूस करें और ऐसे दंगे के मूल कारण का अन्त करने की कोशिश करें।’

       यंग इण्डिया में महात्मा जी ने विद्यार्थी जी के बलिदान के बाद निम्नलिखित टिप्पणी लिखी थी।

       “गणेशशंकर विद्यार्थी को ऐसी मृत्यु मिली जिस पर हम सबको स्पर्द्धा हो। उनका खून अन्त में दोनों मज़हबों को आपस में जोड़ने के लिए सीमेण्ट का काम करेगा। कोई समझौता हमारे हृदयों को आपस में नहीं जोड़ सकता। पर गणेशशंकर विद्यार्थी ने जिस वीरता का परिचय दिया है, वह अन्त में पत्थर से पत्थर हृदय को भी पिघला देगी; और पिघला कर मिला देगी।“

ज्ञानवापी एक बौद्ध विहार था।वापी यानी कुंड या तालाब ।चौक की तरफ से ज्ञानवापी आने पर वापी तक पहुंचने की सीढ़ियां थीं,जैसे कुंड में होती हैं।तथागत बुद्ध के बाद जब आदि शंकराचार्य हुए तब यह बुद्ध विहार न रहा,आदि विशेश्वर मंदिर हुआ।
आदि विशेश्वर मंदिर के स्थान पर बनारस की जुमा मस्जिद है।
महारानी अहिल्याबाई ने काशी के मंदिर-मस्जिद विवाद का दोनों पक्षों के बीच समाधान कराया – काशी की विद्वत परिषद तथा मस्जिद इंतजामिया समिति के बीच।इस समाधान के तहत विश्वनाथ मंदिर बना जो करोडों लोगों का निर्वाद आस्था,पूजा ,अर्चना का केंद्र।
महाराजा रणजीत सिंह ने इस मंदिर को स्वर्ण मंडित करने के लिए साढ़े बाइस मन सोना दान दिया।कहा जाता है कि हरमंदर साहब को स्वर्ण मंडित करने के बाद यह सोना शेष था।
इस विश्वनाथ मंदिर के नौबतखाने में बाबा की शान में बिस्मिल्लाह खां साहब के पुरखे शहनाई बजाते थे।अवध के नवाब राजा बनारस के जरिए इन शहनाइनवाजों को धन देते थे।बाद के वर्षों में नौबतखाने से ही विदेशी पर्यटकों को दर्शन कराया जाता था।काशी के हिन्दू और मुसलमानों के बीच अहिल्याबाई होलकर के समय स्पष्ट सहमति बन गई थी कि मंदिर में दर्शनार्थी किधर से जाएंगे और मस्जिद में नमाज अता करने के लिए किधर से जाएंगे।इस समाधान का सम्मान तब से अब तक किया गया है । मुष्टिमेय लोग साल में एक दिन ‘श्रुगारगौरी’ की पूजा के नाम पर गिरफ्तारी देते हैं।क्या काशी की जनता अशांति,विवाद में फंसना चाहती है?इसका साफ उत्तर है,नहीं।
राष्ट्रतोडक राष्ट्रवादी मानते हैं कि करोड़ों लोगों की आस्था,पूजा के केंद्र की जगह वहां हो जाए जहां मंदिर-मस्जिद हैं।अशोक सिंघल ने विहिप की पत्रिका वंदेमातरम में कहा कि इससे ‘बाबा का प्रताप बढ़ जाएगा’।
इस प्रकार ‘तीन नहीं अब तीस हजार,बचे न एक कब्र मजार’ का सूत्र प्रचारित करने वालों की सोच महारानी अहिल्याबाई तथा महाराजा रणजीत सिंह का विलोम है।
विश्वनाथ मंदिर की बाबत ‘हिन्दू बनाम हिन्दू’ का मामला मंदिर में दलित प्रवेश के वक्त भी उठा था।लोकबंधु राजनारायण ने इसके लिए सफल सत्याग्रह की किया था और पंडों की लाठियों से सिर फुडवाया था।दलित प्रवेश को आम जनता ने स्वीकार किया लेकिन ‘धर्म सम्राट’ करपात्रीजी तथा काशी नरेश ने इसके बाद मंदिर जाना बंद कर दिया।
कल श्री नरेन्द्र मोदी ‘विश्वनाथ धाम’ का लोकार्पण करेंगे।हर बार जब वे काशी आते थे तब भाजपा के झंडे लगाए जाते थे आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के झंडे सरकारी ठेकेदारों के जरिए लगाए गए हैं।
अफ़लातून,
राष्ट्रीय महामंत्री,
समाजवादी जन परिषद

राजनाथ सिंह संसद में बोल चुके हैं कि गांधीजी ने संघ की प्रशंसा की थी।संघ के जिस कार्यक्रम का राजनाथ सिंह ने दिया था उसका तफसील से ब्यौरा गांधीजी के सचिव प्यारेलाल ने ‘पूर्णाहुति’ में दिया है।पूर्णाहुति के प्रकाशन और प्यारेलाल की मृत्यु के बीच दशकों का अंतराल था।इस अंतराल में संघियों की तरफ से कुछ नहीं आया।लेख नीचे पढ़िए।
गांधी अंग्रेजों के खिलाफ़ लड़ते रहे किंतु अपने माफीनामे के अनुरूप सावरकर ने अंडमान से लौट कर कुछ नहीं कहा।नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने जब सावरकर से सहयोग मांगा तब सावरकर ने सहयोग से इनकार करते हुए कहा कि मैं इस वक्त हिंदुओं को ब्रिटिश फौज में भर्ती करा कर शस्त्र प्रशिक्षण कराने में लगा हूँ।नेताजी द्वारा खुद लिखी किताब The Indian Struggle में इस प्रसंग का वर्णन दिया हुआ है।
सावरकर 1966 में मरे जनसंघ की 1951 में स्थापना हो चुकी थी।15 साल जनसंघियों ने उपेक्षा की?
गांधी हत्या के बाद जब संघ प्रतिबंधित था और सावरकर गांधी हत्या के आरोप में बंद थे तब संघ ने उनसे दूरी बताते हुए हिन्दू महासभा में सावरकर खेमे को हत्या का जिम्मेदार बताया था।
गांधीजी की सावरकर से पहली भेंट और बहस इंग्लैंड में हो चुकी थी। हिन्द स्वराज में हिंसा और अराजकता में यकीन मानने वाली गिरोह से चर्चा का हवाला उन्होंने दिया है।
बहरहाल सावरकर और गांधी पर हांकने वाले राजनाथ सिंह का धोती-जामा फाड़ने के इतिहास का मैं प्रत्यक्षदर्शी हूँ।फाड़ने वाले मनोज सिन्हा के समर्थक थे।
राजनाथ सिंह प्यारेलाल , नेताजी और बतौर गृह मंत्री सरदार पटेल से ज्यादा भरोसेमंद हैं?

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